समाज में महिलाओं की प्रस्थिति एवं उनके अधिकारों में वृद्धि ही महिला सशक्तीकरण है। महिला जिसे कभी मात्र भोग एवं संतान उत्पत्ति की जरिया समझा जाता था, आज वह पुरुषों के साथ हर क्षेत्र में कंधे से कंधा मिलाकर खड़ी है। जमीन से आसमान तक कोई क्षेत्र अछूता नहीं है, जहाँ महिलाओं ने अपनी जीत का परचम न लहराया हो। हालाँकि यहाँ तक का सफर तय करने के लिए महिलाओं को काफी मुश्किलों एवं संघर्ष के दौर से गुजरना पड़ा है। समकालीन समाज में नारी सम्बन्धी व्याख्या में तीन अवधारणाओं को प्रयुक्त किया जाता है- प्रथम, 'नारीत्व' अर्थात 'जननिक' (genetic) आधारित पुरुष एवं नारी के बीच शारीरिक एवं जैविक अन्तर का स्पष्टीकरण। शारीरिक अन्तर का आधार 'जेनेटिक' होता है। स्त्री-पुरुष की शारीरिक बनावट, आवाज एवं जनन-अंगों आदि में विभेद प्राकृतिक होता है। इन अन्तरों को पुरुष 'सामाजिक असमानता के रूप में परिवर्तित करके लिंगीय विभेद सम्बन्धी अधिकारों एवं वर्जनाओं को प्रस्तुत करता है। इसे स्त्री ने स्वीकार करके अपनी जीवन-शैली को उसी के अनुरूप ढाला। इस तरह नारी के चाल-चलन, आदतें, तौर-तरीके, शारीरिक सजावट, वस्त्रादि, आचार-व्यवहार आदि के मापदण्ड बनते चले गए।
द्वितीय अवधारणा 'नारीयता' (feminity) सम्बन्धी है। समाज एवं संस्कृति के द्वारा नारी का विशिष्ट निर्माण 'नारीयता' है, जिसके माध्यम से उसकी प्रस्थिति, भूमिका, पहचान, सोच, मूल्य एवं अपेक्षाओं को गढ़ा जाता है। नारीयता के निर्माण की प्रकिया समाज की संस्थाओं, सांस्कृतिक मूल्यों एवं व्यवहारों, प्रथाओं, रीति-रिवाजों, लिखित एवं मौखिक ज्ञान परम्पराओं, धार्मिक अनुष्ठानों तथा नारी-अपेक्षित विशिष्ट मूल्यों से स्थापित होती है। जन्म से ही बालिका को क्षमा, भय, लज्जा, सहनशीलता, सहिष्णुता, नमनीयता आदि के गुणों को आत्मसात करने की शिक्षा प्रदान की जाती है। इस तरह के समाजीकरण का निर्धारण पुरुष प्रधान मानसिकता वाले समाज द्वारा किया जाता है। तृतीय अवधरणा 'नारीवादी' सम्बन्धी विचारधारा से जुड़ती है। यह विचारधारा पुरुष एवं स्त्री के बीच की असमानता को अस्वीकार करके नारी के 'सशक्तीकरण' की प्रकिया को बौद्धिक एवं क्रियात्मक रूप प्रदान करती है।
आज के वैश्वीकरण के दौर में नारीवादी परिप्रेक्ष्य बहुआयामी स्वरूप धारण कर चुका है। एक तरफ जहाँ प्राचीन अप्रासंगिक विचारधारा को चुनौतियाँ मिल रही है, तो दूसरी ओर पुरुष मानसिकता द्वारा प्रदत्त सामाजिक-सांस्कृतिक परिस्थिति को नकारा जा रहा है। 'औरत' और 'नारी' के बीच की कशमकश से संघर्ष करती आज की 'स्त्री' में छटपटाहट है आगे बढ़ने की, जीवन एवं समाज के प्रत्येक क्षेत्र में कुछ कर गुजरने की, अपने अविराम अथक परिश्रम से पूरी दुनिया में एक नया सवेरा लाने की और एक ऐसी सशक्त इबारत लिखने की, जिसमें महिला को अबला के रूप में न देखा जाए। वास्तव में, भारत ही नहीं, बल्कि पुरे विश्व में मुख्यतः व्याप्त पुरुष प्रधान समाज ने एक ऐसी सामाजिक संरचना निर्मित की, जिसमें प्रत्येक निर्णय लेने सम्बन्धी अधिकार पुरुषों के पास ही सीमित रहे। आदिम समाज से लेकर आधुनिक समाज तक 'आधी दुनिया' के प्रति ऐसा भेदभावपूर्ण नजरिया रखा गया, जिसने कभी भी स्त्रियों को एक व्यक्ति के रूप में स्वीकार नहीं किया। उसे या तो 'देवी' बनाया गया या फिर 'भोग्य वस्तु' । उसके व्यक्तित्व को उभरने का अवसर तो प्रदान ही नहीं किया गया।
स्त्रियों के सन्दर्भ में प्रसिद्ध लेखिका तस्लीमा नसरीन ने एक जगह लिखा है कि 'वास्तव में स्त्रियों जन्म से 'अबला' नहीं होती, उन्हें अबला बनाया जाता है। '' पेशे से डॉक्टर तस्लीमा नसरीन ने उदाहरण के साथ इस तथ्य की व्याख्या की है कि जन्म के समय एक 'स्त्री-शिशु' की जीवनी-शक्ति एक 'पुरुष-शिशु' की अपेक्षा अधिक प्रबल होती है, लेकिन समाज अपनी संस्कृति (रीति-रिवाजों,प्रतिमानों, मूल्यों आदि) एवं जीवन शैली के द्वारा उसे सबला से अबला बनाता है। महिला सशक्तिकरण के सन्दर्भ में आजकल 'जेन्डर' (gender) एवं 'सेक्स' (sex) शब्दों के निहित अर्थ को स्पष्ट करते हुए यह व्याख्या प्रस्तुत की जाती है कि 'सेक्स' का सम्बन्ध भौतिक या शारीरिक विशेषताओं से है, जबकि जेन्डर का सम्बन्ध मानसिकता से है। 'सेक्स' का निर्धारण गुणसूत्र (chromosomes) करते हैं, जिस पर किसी का नियन्त्रण नहीं, जबकि 'जेन्डर' का निर्धारण समाज करता है अर्थात बचपन से ही स्त्रियों के मन एवं मस्तिष्क में यह बात बैठा दी जाती है कि वह स्त्री है, इसलिए उसे अमुक-अमुक गतिविधियाँ नहीं करनी चाहिए। एक 20 वर्ष की वयस्क लड़की के शाम को घर से बाहर जाते समय उसका 10 वर्ष का भाई भी साथ जाता है, उसकी रक्षा के लिए। इस तरह की हास्यास्पद गतिविधियाँ सिर्फ मानसिकता का प्रदर्शन करती हैं।
स्त्री मुक्ति आन्दोलन या नारीवाद इस तरह की मानसिकता का विरोध करती है। समाज को अपनी संस्कृति के माध्यम से लोगों का समाजीकरण करते समय उन्हें ऐसे संस्कारों से दूर रखना होगा। प्रसिद्ध कवि जयशंकर प्रसाद ने लिखा है- ''नारी तुम केवल श्रद्धा हो, विश्वास रजत नग पग तल में, यूँ पीयूष स्त्रोत-सी बहा करो, जीवन के सुन्दर समतल में।'' और ये पंक्तियाँ जन-जन की जुबान पर चढ़ गई। हमने एक जीते-जागते मनुष्य को सिर्फ एक भावनात्मक रूप दे दिया, उसे 'देवी' बना दिया, लेकिन कभी भी उसकी आकांक्षाओं की परवाह नहीं की, जो सिर्फ एक सामान्य मनुष्य के रूप में जीवन के सभी क्षेत्रों में पुरुष की 'सहचरी' बनना चाहती है, पुरुष की भाँति जीवन में घर से बाहर निकलकर संघर्ष करना चाहती है। हमने कभी माँ के रूप में, कभी पत्नी के रूप में, कभी बहन के रूप में, तो कभी बेटी के रूप में, हमेशा उसका मानसिक दोहन किया। वह घर के अन्दर एक ऐसी श्रमिक बन गई है, जो बिना पारिश्रमिक लिए अत्यन्त आत्मीयता से सभी सदस्यों की सेवा करती है।
महिला सशक्तीकरण की दिशा में एक अन्य प्रयास 'महिला दिवस' के आयोजन को माना जाता है, जिसकी शुरुआत अमेरिका में सोशलिस्ट पार्टी के आहान पर पहली बार 28 फरवरी, 1909 में की गई, जिसे बाद में फरवरी महीने के अन्तिम रविवार को आयोजित किया जाने लगा। आगे चलकर, सन् 1917 में रूस की महिलाओं ने 'महिला दिवस' पर रोटी एवं कपड़े के लिए हड़ताल की। रूस के तानाशाह शासक जार ने सत्ता छोड़ी और बोल्शेविक क्रान्ति के बाद सत्ता में आई अन्तिम सरकार ने महिलाओं को वोट देने का अधिकार दिया। उस समय तत्कालीन रूस में जूलियन कैलेण्डर का प्रचलन था, जबकि शेष विश्व में ग्रेगेरियन कैलेण्डर प्रचलित था। दोनों कैलेण्डरों की तारीखों में भिन्नता थी। जूलियन कैलेण्डर के अनुसार, 1917 ई० में फरवरी महीने का अन्तिम रविवार 23 फरवरी को था, जबकि ग्रेगेरियन कैलेण्डर के अनुसार, वह दिन 8 मार्च था। चूँकि वर्तमान समय में पुरे विश्व में (रूस में भी) ग्रेगेरियन कैलेण्डर प्रचलित है, इसलिए 8 मार्च को महिला दिवस के रूप में मनाया जाता है।
महिलाओं की स्थिति को ऊँचा उठाने के लिए किए गए अनेक प्रावधानों के अन्तर्गत एक महत्त्वपूर्ण अधिनियम घरेलू हिंसा सुरक्षा अधिनियम, 2005 है, जिसमें सभी प्रकार की हिंसा-शारीरिक, मानसिक, दहेज सम्बन्धी प्रताड़ना, कामुकता सम्बन्धी आरोप आदि से महिलाओं के बचाव के उपाय किए गए हैं। आज की स्त्री न केवल पुरुषों के साथ कन्धे-से कन्धा मिलाकर चलना चाहती है, बल्कि वह जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में बहुत आगे तक जाना चाहती है। इसके बावजूद उसे अभी मीलों लम्बा सफर तय करना है, जो कंटकपूर्ण एवं दुर्गम है, लेकिन वह मानती है कि-
''वह पथ क्या, पथिक कुशलता क्या ?
जिसमें बिखरे शूल न हों,
नाविक की धैर्य-परीक्षा क्या ?
यदि धाराएँ प्रतिकूल न हों।''